सद्गुरु कबीर साहेब विरचित व्याख्याकार सद्गुरु अभिलाष साहेब |
प्रथम प्रकरण : रमैनी
Kabir Bijak Ramaini – 6 in Hindi (रमैनी – 6)
भावार्थ कल्पना छोड़कर मन को शून्य करो
वर्णहु कौन रूप औ रेखा।
दूसर कौन आहि जो देखा।।१।।
वो ॐकार आदि नहिं वेदा।
ताकर कहहु कौन कुल भेदा।।२।।
नहिं तारागण नहिं रवि चन्दा।
नहिं कछु होते पिता के बिन्दा।।३।।
नहिं जल नहिं थल नहिं थिर पवना।
को धरे नाम हुकुम को बरना।।४।।
नहिं कछु होते दिवस निजु राती।
ताकर कहहु कौन कुल जाती।।५।।
Kabir Bijak Ramaini 6 ki साखी
शून्य सहज मन सुमिरते,
प्रगट भई एक ज्योत।
ताहि पुरुष की मैं बलिहारी,
निरालम्ब जो होत।।६।।
Kabir Bijak Ramaini 6 के शब्दार्थ
रेखा = चिन्ह, लक्षण। आदि = मूल। कुल = संपूर्ण । बिन्दा = वीर्य। बलिहारी = प्रशंसा, धन्यवाद। निरालम्ब = निराधार, असंग।
Kabir Bijak Ramaini 6 का भावार्थ
किस रूप और लक्षण का वर्णन करते हो ? तुम्हारे अतिरिक्त उसे किसने देखा है ? ।। १ ।।
उस प्रणव का मूल तो वेद भी नहीं जानते हैं, बताओ! उसका संपूर्ण रहस्य क्या है ? ।।२।।
कहते हैं ” पहले तारागण, सूर्य, चन्द्रमा, पिता के वीर्य, जल, पृथ्वी, आकाश, वायु आदि नहीं थे। फिर किसने नाम रखा और इन सबको उत्पन्न होने की आज्ञा दी ? जिस ब्रह्म के निज स्वरूप में दिन-रात, ज्ञान-अज्ञान कुछ नहीं थे, उसके कुल और जाति अर्थात गुणात्मक लक्षण क्या वर्णन करते हो ?।।३-५।।
सहज मन से स्मरण करते हुए जब संकल्पों का शुन्यत्व हुआ तब हृदय में ज्ञान-ज्योति प्रकट हुई। मैं उस पुरूष की प्रशंसा करता हूं जो असंग हो जाता है।।६।।