353+ Sant Kabir Ke Dohe In Hindi | कबीर के 350 + दोहे PDF | World Popular Dohe

Sant Kabir Ke dohe in Hindi

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Sant Kabir Ke dohe in Hindi
Sant Kabir Ke dohe in Hindi

Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 1


जहिया जन्म मुक्ता हता, तहिया हता न कोय।
छठी तुम्हारी हौं जगा, तू कहाँ चला बिगोय ॥ 1॥

शब्दार्थ –

जहिया = जब जन्म मुक्ता=मुक्त जन्म, स्वतन्त्र नरजन्म। हता न कोय = अन्य तीन खानियों के विवशताकृत बंधन नहीं थे। छठी मन हौं= अहंकार ।

भावार्थ-

जब-जब जीव स्वतन्त्र नरजन्म में था या वर्तमान में है, तब-तब मानवेतर अन्य तीन खानियों के विवशताकृत बंधन नहीं थे और न आज हैं। परन्तु हे जीव ! तू मन में अहंकार जागृतकर और अपने आप को खोकर कहां जा रहा है? ॥ 1 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 2

शब्द हमारा तू शब्द का, सुनि मति जाहु सरक।
जो चाहो निज तत्त्व को, तो शब्दहि लेह परख ॥ 2 ॥

शब्दार्थ –

शब्द = सारशब्द, निर्णय निजतत्त्व = अपना मूल स्वरूप चेतन । वचन । सरक= खिसक, पतित ।

प्रसंग –

दोहे 2 से दोहे 7 तक शब्दों की महत्ता और उसका मूल्यांकन के बारे में बताया गया है।

भावार्थ-

हे मानव ! जो हमारे निर्णय वचन हैं, तुम उनके अधिकारी हो, परन्तु उन्हें सुनकर खिसक न जाओ, प्रत्युत उनका आचरण करो। तुम यदि अपने मूल स्वरूप का बोध चाहते हो, तो सार असार शब्दों की परख करो ॥ 2।।


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 3

शब्द हमारा आदि का, शब्दै पैठा जीव ।
फूल रहन की टोकरी, घोरे खाया घीव ॥ 3 ॥

शब्दार्थ –

आदि = मूल, मुख्य, सत्य। घोरे= घोर, मट्ठा, छांछ, कल्पित वाणी । घीव = घी

प्रसंग- पूर्ववत्

भावार्थ –

हमारे निर्णय शब्द जीव के मूल स्वरूप के परिचायक हैं। परन्तु जीव भ्रामक शब्दों में घुसा पड़ा है। मानव-शरीर तो सारशब्द रूपी फूल रखने की टोकरी है। जैसे घी मट्ठा में पड़ा रहने से खराब हो जाता है, वैसे जीव भ्रामक शब्दों में पड़ा रहने से पतित हो जाता है ॥ 3 ॥


Sant Kabir ke dohe in Hindi
Sant Kabir ke dohe in Hindi

Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 4

शब्द बिना सुरति आँधरी, कहो कहाँ को जाय ।
द्वार न पावै शब्द का, फिर फिर भटका खाय ॥ 4 ॥

शब्दार्थ – शब्द = सारशब्द, निर्णय वचन। सुरति = लक्ष्य, मन। आँधरा= विवेकहीन । द्वार = गुरुमुख ।

प्रसंग- पूर्ववत्

भावार्थ — निर्णय – वचनों को न पाने से मनुष्य का मन विवेकहीन होकर अंधा हो गया है । कहो भला, वह कहां जायेगा? वह शब्दों का द्वार गुरुमुख निर्णय वचन न पाने से बारंबार कल्पित शब्दों के भंवरजाल में भटका खाता है ॥ 4 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 5

शब्द शब्द बहु अन्तरे, सार शब्द मथि लीजै ।
कहहिं कबीर जहाँ सार शब्द नहिं, धृग जीवन सो जीजै ॥ 5 ॥

शब्दार्थ –अन्तरे भेद । धृग= धिक्कार है। जीजै = जीना ।

प्रसंग- पूर्ववत्

भावार्थ – शब्द – शब्द में बड़ा भेद होता है। अतएव विवेक की मथानी से मथकर सारशब्दों को निकाल लो। सद्गुरु कहते हैं कि जिस मनुष्य में सारशब्दों का विचार और आदर नहीं है, वह व्यर्थ ही जीवन जी रहा है ॥ 5 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 6

शब्दै मारा‌ गिर परा , शब्दै छोड़ा राज ।
जिन्ह जिन्ह शब्द विवेकिया, तिनका सरिगौ काज ॥ 6 ॥

शब्दार्थ —
गिर परा= पतित हुआ। सरिगौ= बन गया

प्रसंग- पूर्ववत्

भावार्थ –
विषयासक्तिपूर्ण एवं भ्रामक शब्दों ने ऐसी चोट मारी कि उनसे घायल होकर कितने मनुष्य अपनी मानवता एवं कल्याणपद से पतित हो गये परन्तु एक विवेक-वैराग्यपूर्ण शब्द सुनकर, राज्य तक की आसक्ति त्यागकर सुज्ञजन विरक्त हो जाते हैं। अतएव जिन-जिन लोगों ने सत असत शब्दों का विवेक कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग किया, उनका कल्याण बन गया ॥ 6 ॥

अन्यत्र

साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 7

शब्द हमारा आदि का, पल करहू याद ।
अन्त फलेगी माँहली, ऊपर की सब बाद ॥ 7 ॥

शब्दार्थ – आदि का = मूल स्वरूप का माँहली = अन्तःपुर में जाने वाला सेवक, महल में रहने वाला, तात्पर्य में स्वरूप में स्थित चेतन ।

प्रसंग – पूर्ववत्

भावार्थ-
हमारे निर्णय – शब्द मूल चेतनस्वरूप के परिचायक हैं, अतः ऐसे शब्दों का निरंतर मनन-चिंतन करो। इसके अंतिम फल में स्वरूपस्थिति रूपी महल के निवासी बन जाओगे, ऊपर की माया तो सब व्यर्थ है ॥ 7 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 8

जिन्ह जिन्ह सम्मल ना कियो, अस पुर पाटन पाय ।
झालि परे दिन आथये, सम्मल कियो न जाय ॥ 8 ॥

शब्दार्थ-
सम्मल= शंबल, यात्रा के लिए भोजन पदार्थ, मार्ग का खर्च, धर्म तथा अध्यात्म की पूंजी । पुर= ग्राम, मानव शरीर पाटन = बाजार, सत्संग झालि = अन्धकार, बुढ़ापा की दुर्बलता। दिन आथये= जीवन का अन्त ।

प्रसंग – उपर्युक्त दोहे में यह बताया गया है कि स्वर्ग धरती पर ही है।

भावार्थ – ऐसा उत्तम नर- शरीर और सत्संग पाकर जिसने आध्यात्मिक पूंजी नहीं बना ली, वह बूढ़ा होने पर तथा जीवन के अन्त होने पर कुछ नहीं कर सकेगा ॥ 8 ।।


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 9

यहाँ ई सम्मल करिले, आगे विषई‌ बाट ।
स्वर्ग बिसाहन सब चले, जहाँ बनियाँ न हाट ॥ 9 ॥

शब्दार्थ –
यहाँ ई = नर जन्म में आगे मानवेतर खानियों में बिसाहन =‌ खरीदने ।
प्रसंग – दोहा 8 के अनुसार।
भावार्थ-

वर्तमान स्वस्थ नरजन्म में अपनी कल्याण साधना कर लो। इसके अतिरिक्त पशु आदि खानियों में तो केवल विषयों का मार्ग है। सब जीव स्वर्ग में कल्याण-सौदा खरीदने चले, जहां न वणिक हैं, न बाजार। अर्थात जहां न सद्गुरु हैं, न सत्संग ॥ 9 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 10

जो जानहु जिव आपना, करहु जीव को सार ।
जियरा ऐसा पाहुना, मिले न दूजी बार ॥ 10 ॥

शब्दार्थ –
सार = मुख्य, सर्वोत्तम, वास्तविक, पूर्णतः प्रमाणित, मूल, सत्य,

प्रसंग-

प्रस्तुत दोहे के माध्यम से जीव की गरिमा और उसका स्वागत के बारे में बताया गया है।

भावार्थ –
यदि जीव को अपना स्वरूप समझते हो, तो उसे पूर्णतः प्रमाणित सर्वोच्च सत्ता समझो और उसका स्वागत करो। जीव मानव शरीर में ऐसा पहुना है, जो लौटकर पुन: इसमें नहीं आयेगा ॥ 10।।


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 11

जो जानहु जग जीवना, जो जानहु सो जीव ।
पानि पचावहु आपना, तो पानी माँगि न पीव ॥ 11 ॥
शब्दार्थ –
पानी = पानी, वाणी, वासना ; पचावहु = नष्ट कर दो।

भावार्थ-
यदि जगत में जीने की कला जानते हो और उस जीव को भी जानते हो जो तुम्हारा स्वरूप है, तो आज तक की ग्रहण की हुई सारी वासनाओं को नष्ट कर दो तथा आगे किसी प्रकार वासना संसार से न ग्रहण करो ॥ 11 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 12

पानि पियावत क्या फिरो, घर घर सायर बारि ।
तृषावन्त जो होयगा, पीवेगा झख मारि ॥ 12 ॥

शब्दार्थ-
पानि पानी, उपदेश। घर-घर घट-घट, सबके मन में । सायर = समुद्र। झख = कुढ़न, अहंकार।

प्रसंग :- प्रस्तुत दोहे में उपद्रष्टाओं को चेतावनी दी गई है।

भावार्थ-
उपदेश क्या देते फिरते हो ! सबके मन में ज्ञान का सागर भरा है, अर्थात सबको अहंकार है कि हम ज्ञानी हैं। जो व्यक्ति सत्योपदेश का प्यासा होगा, वह अहंभाव छोड़कर स्वयं ग्रहण करेगा ॥ 12 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 13

हंसा मोति विकानिया, कंचन थार भराय ।
जो जाको मरम न जाने, सो ताको काह कराय ॥ 13 ॥
शब्दार्थ-
हंसा = जीव, चेतन, मनुष्य ; मोति = मोती, मुक्ति ; जो = भ्रमिक गुरु ; जाको = मुक्ति का
प्रसंग :- प्रस्तुत दोहे में चेतन हंस की गुरुता के बारे में बताया गया।

भावार्थ-
जैसे हंस पक्षी मोती चुगने के प्रलोभन में पड़कर तथा बधिक के जाल में फंसकर बाजार में बिक जाये, वैसे चेतन मानव मुक्ति के प्रलोभन में पड़कर तथा थाली में स्वर्ण मोहरें भरकर गुरुओं को अर्पित करता है और उनके जाल में फंसकर संसार – बाजार में बिक जाता है, किन्तु जो भ्रमिक एवं अधकचरे गुरु स्वयं मुक्ति का रहस्य नहीं जानते हैं, शिष्यों को क्या रास्ता बता सकते हैं! ॥ 13 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 14

हंसा तू सुवर्ण वर्ण , क्या वर्णों मैं तोहिं ।
तरिवर पाय पहेलिहो, तबै सराहौं तोहिं ॥ 14 ॥

शब्दार्थ – हंसा = हंस, चेतन जीव । सुवर्ण = उत्तम ज्ञान वर्ण । तरिवर= तरुवर, वृक्ष, मानव शरीर । पहेलिहो = रहस्य को समझोगे ।

भावार्थ-
हे चेतन ! तू उत्तम ज्ञान रंग है। मैं तेरी क्या प्रशंसा करूं। मनुष्य- शरीर तो पाये हुए हो, परन्तु जब अपने रहस्य को समझोगे, तभी मैं तुम्हारी प्रशंसा करूंगा ॥ 14 ॥


Sant Kabir Ke dohe in number 15

हंसा तू तो सबल था, हलुकी अपनी चाल ।
रंग कुरंगे रंगिया, तैं किया और लगवार ॥ 15 ॥

शब्दार्थ –
रंग = भाव । कुरंगे = कुभावना में, विषय-वासना में लगवार= उपपति, अपने ऊपर ईश्वरादि की कल्पना ।

भावार्थ- हे चेतन ! तू तो ज्ञान से अत्यंत ठोस, महान शक्तिशाली था और है। तू परन्तु अपने बुरे आचरणों से हलका हो गया है। तू विषय-वासनाओं और मनःकल्पनाओं के रंग में रंग गया है। तू स्वतन्त्र सम्राट होते हुए अपने ऊपर दूसरा मालिक मान रखा है। 15 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 16

हंसा सरवर तजि चले, देही परिगौ सून ।
कहहिं कबीर पुकारि के, तेहि दर तेही थून ॥ 16 ॥

शब्दार्थ – सरवर = तालाब, देह

भावार्थ-
जब जीव शरीर छोड़कर चला जाता है, तब यह शरीर चेतना से शून्य होकर मुरदा हो जाता है। सद्गुरु जोर देकर कहते हैं कि कर्माध्यासी जीव पुनः उसी गर्भ में प्रवेश करता है, जहां उसका शरीर निर्मित होता है ॥ 16 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 17

हंस बकु देखा एक रंग, चरें हरियरे ताल ।
हंस क्षीर ते जानिये , बकुहिं धरेंगे काल ॥ 17 ॥

शब्दार्थ – हरियरे ताल = हरे-भरे सरोवर में ।

भावार्थ-
देखा कि हंस और बगले एक ही उज्ज्वल रंग में हैं, और हरे-भरे ताल में चर रहे हैं। परन्तु हंस की पहचान उसके नीर-क्षीर विवेक में होती है, और बगले की पहचान उसकी क्रूरता में होती है। वह मछली आदि जीवों को पकड़कर खाता है ॥ 17 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 18

 

काहे हरिनी दूबरी, यही हरियरे ताल ।
लक्ष अहेरी एक मृग, केतिक टारों भाल ॥ 18 ॥

शब्दार्थ – लक्ष = लाख की संख्या, तात्पर्य में बहुत । अहेरी = शिकारी । भाल = तीर, तीर का फल ( नोक), भाला।

प्रसंग :- प्रस्तुत दोहे (साखी) में जीव का बन्धन क्यों होता हैं? इसके बारे में बताया गया है।

भावार्थ –

ऐसे हरे-भरे ताल में हिरनी दुबली क्यों है? (हिरनी ने उत्तर दिया—) मुझ एक के ऊपर लाखों शिकारी बाण चला रहे हैं। मैं कितने बाणों से अपने आप को बचाऊं !
अभिप्राय है कि विवेकसंपन्न मानव-जीवन को पाकर भी जीव दुखी क्यों है? उत्तर है कि उसके भीतर – बाहर लाखों शिकारी उसके पीछे पड़े हैं। वह अपने आप को कितने प्रहारों से बचाये ! ॥ 18 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 19

तीन लोक भौ पींजरा, पाप पुण्य भौ जाल।
सकल जीव सावज भये, एक अहेरी काल ॥ 19 ॥

शब्दार्थ –
तीन लोक = सत, रज, तम । सावज = शिकार । काल = मन की कल्पनाएं, अज्ञान ।

भावार्थ-
सत, रज और तम ये तीनों गुण पिंजड़े बन गये, पाप तथा पुण्य जाल बन गये और सब जीव इनमें फंसने वाले शिकार बन गये। एक अज्ञान-काल- शिकारी ने सबको फंसाकर मारा ॥ 19।।


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 20

लोभे जन्म गमाइयां, पापै खाया पून।
साधी सो आधी कहैं, तापर मेरा खून ॥ 20 ॥

शब्दार्थ
— पापै = लोभ ने साधी = सिद्ध करने वाला, जो साधना में लगा हो, साधक, जीव आधी = अधकचरा ज्ञान। खून= क्रोध, गुस्सा

भावार्थ –
लोग अपना जीवन लोभ में खो देते हैं। लोभ तो पाप की जड़ है। वह पुण्य को खा जाता है। अधकचरे गुरु साधक-जीव से परमार्थ की आधी-अधूरी बातें
करते हैं। उन पर मुझे गुस्सा आता है ॥ 20 ।।


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 21

आधी साखी सिर खड़ी, जो निरुवारी जाय ।
क्या पण्डित की पोथिया, जो राति दिवस मिलि गाय ॥ 21 ॥

शब्दार्थ –
सिर खड़ी = रक्षक, पूर्ण कल्याणदायी एवं बोधप्रद । निरुवारी = निर्णय ।

प्रसंग :- प्रस्तुत दोहे में सार वचन का महत्त्व के बारे में बताया गया है।

भावार्थ –
यदि विचार एवं निर्णय करके आचरण में लायी जाये तो बोधप्रद आधी साखी भी पूर्ण कल्याणकारी हो सकती है। निर्णय रहित पंडित की बड़ी-बड़ी पोथियों को रात-दिन गाने से क्या लाभ जिनमें स्वरूप का सच्चा बोध नहीं है ॥ 21


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 22

पाँच तत्त्व का पूतरा, युक्ति रची मैं कीव |

मैं तोहि पूछौं पण्डिता, शब्द बड़ा की जीव ||

शब्दार्थ-

पूतरा = पुतला, देह । कीव = कर दिया।

प्रसंग – जीव की सर्वोच्चता के बारे में बताया गया है।

 भावार्थ —

पांच तत्त्वों के इस पुतले शरीर को मैंने ही रचकर तैयार किया है। हे पंडितो! मैं तुमसे पूछता हूं “शब्द बड़ा होता है कि जीव?” ॥ 22 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 23

पाँच तत्त्व का पूतरा, मानुष धरिया नाँव
एक कला के बीछुरे, बिकल होत सब ठाँव ॥ 23 ॥

शब्दार्थ –

एक कला = परख, सद्बुद्धि, स्वरूपज्ञान । बिकल = विकल, अशांत, कष्टित ।

भावार्थ-

पांच तत्त्व के पुतले इस शरीर को धारण करने से जीव का नाम मनुष्य रखा गया। परन्तु एक सद्बुद्धि के बिना यह सब जगह पीड़ित रहता है ॥ 23||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 24

रंगहि ते रंग ऊपजे, सब रंग देखा एक ।
कौन रंग है जीव का, ताका करहु विवेक ॥24 ॥

शब्दार्थ- – रंग रंग; लाल, पीला इत्यादि ।

भावार्थ –
रंगों से ही अन्य रंगों की उत्पत्ति होती है। अन्त में देखा गया, तो सब रंग एक – जड़ है। जीव का रंग कौन-सा है— इसका विवेक करो ॥ 24 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 25

जाग्रत रूपी जीव है, शब्द सोहागा सेत |
जर्द बुन्द जल कूकुही, कहहिं कबीर कोइ देख ॥ 25 ॥

शब्दार्थ –
जाग्रत = ज्ञान रूपी = रूप का, रंग का । सोहागा= सुहागा, एक क्षार- द्रव्य जो सोना गलाने के काम में आता है तथा इसकी दवाई भी बनती है। सेत = शीतल, जड़बुद्धि जर्द = पीला, रज । बुन्द= वीर्य । जल- कूकुही = जल कुक्कुट, एक जलपक्षी, जल का फेन शरीर ।

भावार्थ –
जीव ज्ञान रंग का है, परन्तु भ्रांति एवं विषय-वासनापूर्ण शब्दरूपी सुहागा पाकर यह स्वर्णमय चेतन जीव अपने पद से पिघलकर जड़-बुद्धि का हो गया है। अतएव यह कर्म-वासनावश पिता के वीर्य एवं माता के रज में मिलकर जल बुदबुदारूप शरीर को धारण करता है। सद्गुरु कबीर कहते हैं कि इस प्रकार कोई बिरला ही समझता है ॥ 25||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 26

पाँच तत्त्व ले या तन कीन्हा, सो तन ले काहि ले दीन्हा ।
कर्महिं के वश जीव कहत हैं, कर्महिं को जिव दीन्हा ॥ 26 ॥

शब्दार्थ –
वश= अधीन, बन्धन में।

भावार्थ-
पांच तत्त्वों को लेकर इस उत्तम मानव शरीर की रचना हुई; परन्तु हे जीव! तूने इसे किस कर्म-प्रपंच में झोंक दिया! सभी महापुरुष तथा शास्त्र यही कहते हैं कि जीव कर्मों के बन्धनों में पड़कर ही भटकता है। आश्चर्य होता है कि उन्हीं कर्म- बन्धनों में बंधने का उपदेश पंडितजन पुनः करते हैं || 26 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 27

पाँच तत्त्व के भीतरे, गुप्त बस्तु अस्थान ।
बिरला मर्म कोई पाइहैं, गुरु के शब्द प्रमान ॥ 27 ॥

शब्दार्थ –
गुप्त वस्तु अदृश्य चेतन जीव मर्म रहस्य, भेद ।

भावार्थ-
पांच तत्त्वों से बने इस शरीर के भीतर स्थान में एक अदृश्य ज्ञानस्वरूप चेतन जीव निवास करता है। परन्तु सद्गुरु के निर्णय वचनों के प्रमाणों से कोई विरला उसका भेद ठीक से जान सकता है ॥27॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 28

असुन्न तखत अड़ि आसना, पिण्ड झरोखे नूर ।
जाके दिल में हौं बसा, सैना लिये हजूर ॥ 28 ॥

शब्दार्थ- –
असुन्न = शून्य-रहित, सत्य पदार्थ, चेतन। तखत = सिंहासन, पद । अड़ि= अडिग। पिण्ड= शरीर । झरोखे = इन्द्रियां नूर = प्रकाश, चैतन्यता । हौं = मैं, चेतन। सैना = ज्ञान-प्रकाशरूप फौज । हजूर = हुजूर, सामने आना, उपस्थिति ।

भावार्थ-
हे जीव जिसने शरीर के इन्द्रिय-झरोखों से अपना ज्ञान-प्रकाश फैला रखा , वह सत्य चेतनस्वरूप ही तुम्हारी अविचल स्थिति-दशा है। ज्ञान-प्रकाश की सेना लेकर ‘मैं’ के रूप में सभी दिलों में वही उपस्थित है ॥ 28 ||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 29

हृदया भीतर आरसी, मुख देखा नहिं जाय |
मुख तो तबहीं देखिहो, जब दिल की दुबिधा जाय ॥ 29 ॥

शब्दार्थ –
आरसी = आइना, दर्पण, विवेक दुबिधा = द्विधा, दो भागों में बंटे रहना, संशय ।

भावार्थ –
हर मनुष्य के हृदय में विवेक का दर्पण है, परन्तु वह उसमें अपना वास्तविक चेहरा नहीं देख पाता। वह अपने आपा को उसमें तभी देखेगा जब उसके मन का दो-तरफापन मिट जायेगा ॥ 29 ||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 30

स्वरूपस्थिति एवं आत्मस्थिति की उच्चता
गाँव ऊँचे पहाड़ पर, औ मोटा की बाँह ।
कबीर अस ठाकुर सेइये, जाकी उबरिये छाँह || 30 ||

शब्दार्थ —

गाँव = स्थिति । मोटा = श्रेष्ठ, बड़ा। ठाकुर = स्वामी, संत, सद्गुरु । छाँह = छाया, आश्रय

भावार्थ –
जीव की स्थिति उच्च चैतन्य शिखर पर है। हे मनुष्य! तुम उन श्रेष्ठ संत एवं सद्गुरु का सहारा लो और उनकी सेवा करो जिनकी शरण से तुम्हारा संसार- सागर से उद्धार हो ॥ 30 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 31 – 32

जेहि मारग गये पण्डिता, तेई गई बहीर।
ऊँची घाटी राम की, तेहि चढ़ि रहै कबीर ॥ 31||

ये कबीर तैं उतरि रहु, तेरो सम्मल परोहन साथ। सम्मल घटे न पगु थके, जीव बिराने हाथ ॥ 32 ॥

शब्दार्थ –
पंडित = पुरोहित । बहीर= भीड़। घाटी = दो पर्वतों के बीच की ढलान की जमीन, तात्पर्य में ऊंची जगह । सम्मल= शंबल, यात्रा के लिए भोज्य पदार्थ, पाथेय | परोहन = घोड़ा, गाड़ी आदि सवारी या बोझा ढोने वाले पशु ।

भावार्थ –
जिस रास्ते से पुरोहित एवं पंडित लोग जाते हैं, उसी रास्ते से भीड़ भी जाती है, किन्तु कबीर तो सबसे अलग एवं स्वतंत्र होकर स्वरूपस्थिति रूपी राम की ऊंची घाटी पर चढ़ जाता है ॥ 31 ॥

परन्तु हे कबीर, संसार के जीव अविवेकवश दूसरों के हाथों में पड़े हुए भटक रहे हैं। अतएव तुम उनके उद्धार के लिए राम की ऊंची घाटी एवं समाधि-सुख छोड़कर लोगों के बीच में उतर आओ। क्योंकि तुम्हारे पास विवेकज्ञान का शंबल है, पाथेय है और स्वावलंबन तथा स्व-श्रम का परोहन है। वे तुम्हारे पास से घटने वाले नहीं हैं। अतएव ऐसा करने से तुम्हारा कुछ बिगड़ेगा नहीं, किन्तु भूले जीवों का उद्धार होगा || 32 ||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 33

कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहली गैल ।
पाँव न टिके पपीलका, तहाँ खलकन लादै बैल ॥ 33 ॥

शब्दार्थ —

शिखर = सर्वोच्च चेतन तत्त्व । सिलहली = रपटीला, फिसलनयुक्त । पपीलका = पिपीलका, चींटी। खलकन= संसारी लोग।

भावार्थ-

जीव की शाश्वत स्थिति उसके अपने सर्वोच्च स्वस्वरूप चेतन में है। उस तक पहुंचने का रास्ता फिसलन से भरा है। जहां चींटी के पैर नहीं टिकते, वहां संसार के लोग बैल पर सामान लादकर व्यापार करना चाहते हैं || 33 ||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 34

बिन देखे वह देश की बात कहै सो कूर ।
आपुहि खारी खात है, बेंचत फिरै कपूर ॥34॥

शब्दार्थ –
वह देश = मोक्ष, स्वरूपस्थिति कूर = कायर, मूर्ख खारी= नमक, विषय भोग। कपूर= दारचीनी की जाति के पेड़ों से निकला हुआ एक सुगन्धित सफेद द्रव्य, तात्पर्य में श्रेष्ठ ज्ञान ।

भावार्थ –

जीवन्मुक्ति एवं स्वरूपस्थिति का अनुभव किये बिना जो उसका अधिकारपूर्वक व्याख्यान करते हैं, वे कायर एवं मूर्ख हैं। वे स्वयं तो विषय-भोगरूपी नमक खाते हैं और दूसरे को श्रेष्ठ ज्ञानरूपी कपूर बांटते फिरते हैं || 34 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 35

शब्द शब्द सब कोई कहैं, वो तो शब्द विदेह ।
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि लेह ॥ 35 ||

शब्दार्थ –
शब्द विदेह – शब्दरूपी देह से रहित, से पृथक हो, शुद्ध चेतन । निरखि परखि= यथार्थ विवेक, पूर्ण पारख ।

भावार्थ-
सभी मतवादी शब्द ही शब्द को अपना उपास्य एवं लक्ष्य कहते हैं, परन्तु व्यक्ति का जो उपासनीय एवं लक्ष्य है वह तो शब्द के जालों से सर्वथा रहित शुद्ध चेतन है। वह जीभ पर आने की वस्तु नहीं है। उसकी केवल निरख-परख करो ॥35॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 36

पर्वत ऊपर हर बहै, घोड़ा चढ़ि बसै गाँव |
बिना फूल भौंरा रस चाहै, कहु बिरवा को नाँव ॥ 36 ॥

शब्दार्थ –

बहै चलना। बिरवा= पेड़।

भावार्थ –
अपनी आत्मा को परम तत्त्व न समझकर शब्द – जालों में पड़े हुए जो अलग परमात्मा या मोक्ष खोजते हैं, वे मानो पत्थर पर हल चलाना चाहते हैं, घोड़े पर चढ़कर उस पर गांव बसाना चाहते हैं और उनका मन-भौंरा बिना फूल के ही रस चाहता है । कहो भला, कल्पना को छोड़कर उस वृक्ष का नाम क्या हो सकता है ! ।। 36 ।।


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 37

चन्दन बास निवारहू, तुझ कारण बन काटिया ॥
जियत जीव जनि मारहू, मुये सबै निपातिया ॥ 37 ॥

शब्दार्थ –
चन्दन = एक सुगंधित लकड़ी या उसका वृक्ष, तात्पर्य में चेतन जीव । बास=गंध, वासना । निवारहू=त्याग करो। बनजंगल, भ्रम- मान्यताएं । निपातिया = नष्ट हो जाते हैं।

भावार्थ –
हे चेतन मनुष्य ! तू वासनाओं का त्याग कर। तेरे कल्याण के लिए मैंने भ्रांतियों का जंगल काट दिया है। तपस्या के नाम पर जीते जी अपने को मत पीड़ित करो या उपवास करके आत्महत्या मत करो। यदि शरीर को पीड़ित करने एवं आत्महत्या करने से मोक्ष होना माने, तो शरीरांत में सब नष्ट हो जाते हैं, फिर तो सबका मोक्ष होना सुकर हो जाना चाहिए ॥ 37||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 38

चन्दन सर्प लपेटिया, चन्दन काह कराय ॥
रोम रोम विष भीनिया, अमृत कहाँ समाय ॥ 38 ॥

शब्दार्थ –
चंदन = चेतन – मनुष्य । सर्प = अहंकार । विष= विषयासक्ति । अमृत = स्वरूपविचार, आत्मविचार, वासनाहीन दशा, शांति ।

भावार्थ –
जीव को अहंकार सर्प ने लपेट रखा है, अतः जीव बेचारा क्या करे ! उसके रोम-रोम में तो विषयासक्ति भीनी हुई है, फिर उसमें स्वरूप- विचार एवं शांतिरूपी अमृत कहां समाये ?’ ॥ 38 ।।


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 39

ज्यों मोदाद समसान शिल, सबै रूप समसान ॥
कहहिं कबीर वह सावज कीगति, तबकी देखि भुकान ॥ 39 ॥

शब्दार्थ-
मोदाद – स्फटिक पत्थर समसान शिल= प्राप्त रंग के समान हो जाने वाला पत्थर । सावज = साउज, पशु, साउज उस पशु को कहते हैं है जिसका शिकार किया जाये; यहां का अभिप्राय है कुत्ता।

भावार्थ-
जैसे स्वच्छ कांच के समान स्फटिक पत्थर होता है जिसे प्राप्त रंग के अनुसार प्रतीत होने के नाते समसान शिला भी कहते हैं, वह सभी रूपों एवं रंगों को ग्रहण करता है, वैसे मनुष्य का मन है। यह प्राप्त वृत्तियों के रंग में रंगकर उस उस के अनुसार बन जाता है। सद्गुरु कहते हैं कि जैसे कुत्ता शीशमहल में अपने प्रतिबिंब देखकर और उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी मानकर उन्हें परास्त करने के लिए भुंक-भूंककर मरता है, वैसे मनुष्य भ्रमवश अपनी ही भावनाओं को सबमें प्रतिबिंबित करके राग-द्वेष में भूंक- भूंककर मरता है ॥ 39 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 40 – 41

गही टेक छोड़े नहीं, जीभ चोंच जरि जाय ॥
ऐसो तप्त अंगार है, ताहि चकोर चबाय ॥ 40 ॥
चकोर भरोसे चन्द्र के, निगलै तप्त अंगार ॥
कहैं कबीर डाहै नहीं ऐसी वस्तु लगार ॥ 41 ॥

शब्दार्थ –
टेक = संकल्प, हठ, पक्ष, आश्रय । लगार = लगाव, प्रेम ।

प्रसंग – हठ और दृढ़ संकल्प-शक्ति का भेद के बारे में बताया गया है ।

भावार्थ-
चकोर पक्षी चन्द्रमा का प्रेमी होता है वह उसके प्रेमपक्ष को कभी नहीं छोड़ता। वह तप्त अंगार को भी चन्द्रमा का अंश मानकर निगल जाता है चाहे उसकी जीभ एवं चोंच भले जल जायें। लगाव ऐसी वस्तु है कि वह जलता भी नहीं ॥ 40-41 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 42

झिलमिल झगरा झूलते, बाकी छूटि न काहु ॥
गोरख अटके कालपुर, कौन कहावै साहु ॥ 42 ॥

शब्दार्थ –
झिलमिल = हिलता हुआ ज्योति प्रकाश । अटके=फंसे, बंधन में पड़े। कालपुर=कल्पना का नगर । साहु = साधु, विवेकी ।

प्रसंग – दृश्य-ज्योति का द्रष्टा चेतन श्रेष्ठ है।

भावार्थ –
प्राणायाम करते हुए त्राटकादि मुद्रा द्वारा झिलमिल ज्योति देखने के झगड़े में पड़कर सभी योगी इस भ्रम – झूले में झूलते हैं। इनमें से इससे कोई नहीं बचा। गोरखनाथ – जैसे महापुरुष भी इस कल्पना के नगर में फंस गये, फिर दूसरा कौन विवेकी कहलायेगा ! ॥ 42 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 43

गोरख रसिया योग के, मुये जारी देह ॥
न माँस गली माटी मिली, कोरो माँजी देह ॥ 43 ॥

शब्दार्थ –
रसिया = रसिक, प्रेमी। कोरो शरीर की हड्डियां । माँजी = साधना चमकने लगीं।

प्रसंग – योगी तथा संत के शरीर भी नाशवान हैं।

भावार्थ –
श्री गोरखनाथ जी योगाभ्यास के बड़े प्रेमी थे। उन्होंने अपने शरीर को योगाभ्यास में इसलिए तपाया कि यह अमर हो जाये। फलतः उनके शरीर का मांस गलकर मिट्टी में मिल गया। अभिप्राय है कि उन्होंने योगाभ्यास से मांस को गला डाला और उनकी देह की हड्डियां मंजे हुए बरतन के समान चमकने लगीं ॥ 43 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 44

बन ते भागि बेहड़े परा, करहा अपनी बान ॥
बेदन करहा कासो कहै, को करहा को जान ॥ 44 ॥

शब्दार्थ –
बेहड़े – बीहड़, ऊबड़-खाबड़ भयंकर स्थान । करहा = खरहा, शशा, खरगोश । बान= स्वभाव । बेदन= वेदना, कष्ट ।

प्रसंग – साधु के बंधन के बारे में बताया गया है ।

भावार्थ –
खरगोश अन्य हिंसक जंतुओं के डर से अपने दौड़ने के स्वभाववश भागकर एक उलझे हुए भयंकर स्थान में जा गिरा। अब वह अपनी पीड़ा किससे कहे ! उसके दर्द को अन्य कौन समझेगा ! अभिप्राय है कि मनुष्य गृहस्थी के बंधनों से भागकर साधु का वेष धारण किया और किसी सम्प्रदाय में दीक्षित हो गया, परंतु अपने फंसने के स्वभाववश वहां भी प्रपंच बनाकर उसमें बंध गया। अब वह अपने दुख को किससे कहे, उसके कष्ट को कौन दूर करे ! || 44 ||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 45

बहुत दिवस ते हींड़िया ,शून्य समाधि लगाय ॥
करहा पड़ा गाड़ में, दूरि परा पछिताय ॥ 45 ॥

शब्दार्थ –
हड़िया – खोज किया, भटकता रहा। करहा=खरगोश । गाड़= गड्ढा

भावार्थ –
हठयोगी आदि अनेक साधक शून्य में समाधि लगाकर बहुत दिनों तक ब्रह्म को खोजते रहे, परन्तु वह न मिला। इनकी दशा वैसे हुई जैसे खरगोश अपने निवास स्थान से दूर किसी कंटीले तथा झाड़दार गहरे गड्ढे में पड़ा पश्चाताप कर रहा हो || 45 ||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 46

कबीर भरम न भाजिया, बहुबिधि धरिया भेष ॥
साँईं के परचावते, अन्तर रहि गइ रेष ॥ 46 ॥

शब्दार्थ –
साँई – ब्रह्म । परचावते परिचय करते-कराते । अन्तर = मन में रेष = हानि, क्षति, रेख, लकीर, अध्यास, वासना ।

भावार्थ-
सद्गुरु कहते हैं कि लोग नाना सम्प्रदायों में भक्त तथा साधुओं के नाना वेष धारण कर लेते हैं और उनके कर्मकांड तथा वाणी-जाल में उलझ जाते हैं, परन्तु उनके मन की भ्रांति नहीं मिटती । गुरु और शिष्य परस्पर ब्रह्म का परिचय करते-कराते हुए घोटाले में रह जाते हैं और उनके मन में किसी न किसी रूप में संसार की वासना शेष रह जाती है । || 46 ||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 47

बिनु डाँड़े जग डाँड़िया , सोरठ परिया डाँड़ ।।
बाट निहारे लोभिया, गुर ते मीठी खाँड़ ॥ 47 ॥

शब्दार्थ –
बिनु डाँड़े = बिना दंड किये। डाँडिया = दंडित हुआ । सोरठ=जुआ (सोर=सोलह, ठठौर – सोलह जगह — जुआ खेलने के सोलह कोष्ठक) । डाँड़ = व्यर्थ । बाटनि =जुआ में पड़ने वाली चिट्ठी, दावं, बाजी । गुर= गुड़ । खांड़-शकर ।

प्रसंग – जीवन- जुआ में हार से बचो इसकेबारे में बताया गया है ।

भावार्थ –
संसार के लोगों को किसी ने दण्डित नहीं किया, किन्तु ये अपने अज्ञानवश स्वयं ही दण्डित हुए। इनका मानव-जीवनरूपी जुआ व्यर्थ गया। ये सुख के लोभी अपने कल्याण की इच्छा का दावं हार गये। गुड़ से शकर मीठा होता है, परन्तु ये गुड़ को शकर न बना सके अर्थात जीवन को तपाकर आध्यात्मिक लाभ न ले सके ॥ 47 ॥


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 48

मलयागिर की बास में, वृक्ष रहा सब गोय ॥
कहबे को चन्दन भया, मलयागिर ना होय ॥ 48 ॥

शब्दार्थ –
मलयागिर = मलयगिरि, दक्षिण भारत का एक पर्वत जिसमें चन्दन – वृक्षों की बहुलता है; चन्दन, तात्पर्य में चेतन । बास = सुगंधी, चैतन्यता गोय= लीन, छिपा हुआ ।

प्रसंग – जीव देह से सर्वथा भिन्न है ।

भावार्थ-
मलयगिरि की सुगंधी में उसके आस-पास के सारे वृक्ष ओतप्रोत हो जाते हैं। वे कहने मात्र के लिए चन्दन बन जाते हैं, परन्तु मलयगिरि नहीं हो सकते। इसी प्रकार चेतन की चैतन्यता में पूर्ण शरीर चैतन्यवत प्रतीत होता है, परन्तु शरीर मूलतः चेतन नहीं हो सकता || 48 ||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 49

विनयावत ही सत्संग से लाभ ले सकता है
मलयागिर की बास में, बेधा ढाँक पलास ॥
बेना कबहुँ न बेधिया, जुग जुग रहिया पास ॥ 49 ॥

शब्दार्थ –
बेना = बांस |

प्रसंग – विनयावत ही सत्संग से लाभ ले सकता है ।

भावार्थ –
ढांक – पलाश जैसे साधारण पेड़-पौधे भी सरस होने से मलयगिरि की सुगंध में सुवासित होकर चंदन बन जाते हैं। परन्तु बांस- जैसे बड़े वृक्ष भी गांठदार, पोले तथा नीरस होने से मलयगिरि की सुगंधी को नहीं ग्रहण कर पाते, भले ही वे मलयगिरि के पास बहुत काल से रहते हों इसी प्रकार साधारण मनुष्य अपनी विनम्रता के कारण सत्संग से लाभ लेकर महान हो जाते हैं, परन्तु बड़प्पन के अहंकारी लोग चाहे नित्य साधुजनों के पास ही रहें, उनसे कोई लाभ नहीं ले पाते || 49 ||


Sant Kabir Ke dohe in Hindi number 50

चलते पगु थका, नग्र रहा नौ कोस ॥
बीचहि में डेरा परा, कहहु कौन को दोष ॥ 50 ॥

शब्दार्थ –
नग्रनगर, गंतव्य, अपनी स्थिति नौ कोस-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध या नौ कोस- अन्नमय, शब्दमय, प्राणमय आनन्दमय, मनोमय, प्रकाशमय, ज्ञानमय, आकाशमय तथा विज्ञानमय’ डेरा – पड़ाव

प्रसंग – जीव की स्वरूपस्थिति नौ कोस की दूरी पर चलते

भावार्थ –
मानो कोई यात्री हो। वह सुबह से चल रहा हो। चलते-चलते उसके पैर थक गये हों, अभी उसका मूल निवास स्थान नौ कोस की दूरी पर हो, इतने में शाम आ गयी हो इसलिए बीच में ही उसका पड़ाव पड़ गया हो,


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